बुधवार, 5 जून 2013

"परवाज़"



भले ही आज जीवन में, तेरी कायम अँधेरा है
इसी दुनिया में ही लेकिन, कहीं रौशन सवेरा है

मै इक ऐसा परिंदा हूँ, नही सीमाएं है जिसकी
मेरी परवाज़ की खातिर, ये दुनिया एक घेरा है

कभी हिंदू कभी मुस्लिम. रहे हैं हारते हरदम
सियासत खेल ऐसा है, न तेरा है न मेरा है

कुतरते ही रहे है देश को, हरदम जहाँ नेता
इसे संसद न कहियेगा, ये चूहों का बसेरा है

न जलती है न मरती है, महज़ कपड़े बदलती है
“ऋषी” इस रूह की खातिर, ये जीवन एक डेरा है

अनुराग सिंह “ऋषी”
04/06/2013


चित्र ---> गूगल से साभार

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