रविवार, 11 नवंबर 2012

मुस्कान ढूँढें





फिर चलो वो शाम ढूँढें,
फिर से वो  आयाम ढूँढें,
भीड़ में जो गुम हुई हमसे कहीं,
चल कहीं फिर से वही मुस्कान ढूँढें.

निःस्वार्थता पर छा रहे बादल घने,
स्वार्थ  की ही राह पे दुनिया चले,
आ ज़रा चल कर "गया " निर्वाण ढूँढें,
चल कहीं फिर से वही मुस्कान ढूँढें.

भागता है ये ज़हाँ जाने कहाँ,
वृद्ध सा लाचार है मानव यहाँ,
था कभी पहले वही इंसान ढूँढें,
चल कहीं फिर से वही मुस्कान ढूँढें.

दिख रहे हैं स्वप्नों में पैसे हमें,
ख्वाब भी हैं आ रहे ऐसे हमें,
हैं कहाँ पहले सी वो आवाम ढूँढें,
चल कहीं फिर से वही मुस्कान ढूँढें.

वास्तविक उद्देश्य सारे खो गए,
व्यर्थ की चिंता में जब से हो गए,
"ऋषि" चलो फिर से वही पहचान ढूँढें,
चल कहीं फिर से वही मुस्कान ढूँढें.

ऋषि 

11/11/2012

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