मैँ न जाने क्योँ यूँ जगता हूँ अकेले रात मेँ,
ढूँढता हूँ मैँ न जाने क्या घनी बरसात मेँ।
शब्द से जाने नहीँ क्यूँ बन रही अब बात है,
लाऊँ अब मोती कहाँ से इस अँधेरी रात मेँ॥
बन पपीहा मैँ फसा मजबूरियोँ की रेत मेँ,
गिर चुकी "स्वाती" को अब हूँ ढूढता सैलाब मेँ॥
मैँ न जाने क्योँ यूँ जगता हूँ अकेले रात मेँ।
likhate acchhe ho bhai...keep it up
जवाब देंहटाएंthanx guru bhai
हटाएंRakh hausla wo manzar bhi aayega…
जवाब देंहटाएंPyase ke paas chal k samandar bhi aayega
Thak kar na Baith aye manzil k musafir…
Manzil bhi milegi aur milne ka maza bhi aayega......
waise likha bhut achha h aapne...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिल्पी जी और हाँ आमीन
जवाब देंहटाएंआज दो साल पूरे हो गए इस कविता को
जवाब देंहटाएंnice dear very nice
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